लॉकडाउन की ( को ) रोना कविता
कोरोना की दहशत से मानव
"अब " अभ्यस्त हो रहा है ,
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कोरोना की दहशत से मानव
"अब " अभ्यस्त हो रहा है ,
अंदर ही अंदर अचानक
" मन " अब सन्यस्त हो रहा है ,
" मन " अब सन्यस्त हो रहा है ,
दूर हुए थे जिन अपनों से उन
अपनों का,अब अपनों से मिलने
को दिल बेचैन हो रहा है ,
अपनों का,अब अपनों से मिलने
को दिल बेचैन हो रहा है ,
कोरोना से संक्रमित अपनों को ,
अपना कहने का हौसला भी ,
अपना कहने का हौसला भी ,
अब पस्त हो रहा है ,
देखकर कोरोना का यह
चांडाली नृत्य ,
चांडाली नृत्य ,
अब हर शख्स अपने घरों
में ही मस्त हो रहा है ,
में ही मस्त हो रहा है ,
बीमारियों में मौतें तो
देखी है बहुत मगर ,
देखी है बहुत मगर ,
कोरोना से मौत का रूप
कितना वीभत्स हो रहा है ,
कितना वीभत्स हो रहा है ,
पाला पोसा जिन अपनों
ने अपनों को ,
ने अपनों को ,
उनकी लाशों को आज
अपनों का कांधा भी ,
नसीब नहीं हो रहा है ,
अपनों का कांधा भी ,
नसीब नहीं हो रहा है ,
भयभीत हुआ इंसान अब ,
अनिश्चययुक्त भविष्य से
चिंताग्रस्त हो रहा है ,
चिंताग्रस्त हो रहा है ,
देख तेरे संसार की हालत
भगवन,यह क्या हो रहा है ?
भगवन,यह क्या हो रहा है ?
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